देश के प्रधानमंत्री बताएं विकलांगों की शिक्षा के लिए कितने स्पेशल टीचर नियुक्त किये : पीयूष पण्डित
विकलांगो को अलग स्कूल नही बल्कि स्पेशल एजुकेटर की जरूरत : पीयूष पण्डित
विकलांग को डिफरेंटली एबल्ड कहिये अच्छा है वो भी आम इंसान हैं एलियन नही जो दिव्यांग बना दिया गया : पीयूष पण्डित
3 दिसंबर का दिन दुनियाभर में, दिव्यांगों की समाज में मौजूदा स्थिति, उन्हें आगे बढ़ने हेतु प्रेरित करने तथा सुनहरे भविष्य हेतु भावी कल्याणकारी योजनाओं पर विचार-विमर्श करने के लिए जाना जाता है।
प्रतिवर्ष 3 दिसंबर का दिन दुनियाभर में दिव्यांगों की समाज में मौजूदा स्थिति, उन्हें आगे बढ़ने हेतु प्रेरित करने तथा सुनहरे भविष्य हेतु भावी कल्याणकारी योजनाओं पर विचार-विमर्श करने के लिए जाना जाता है। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक मुहिम का हिस्सा है जिसका उद्देश्य दिव्यांगजनों को मानसिक रुप से सबल बनाना तथा अन्य लोगों में उनके प्रति सहयोग की भावना का विकास करना है। एक दिवस के तौर पर इस आयोजन को मनाने की औपचारिक शुरुआत वर्ष 1992 से हुई थी। जबकि इससे एक वर्ष पूर्व 1991 में सयुंक्त राष्ट्र संघ ने 3 दिसंबर से प्रतिवर्ष इस तिथि को अन्तरराष्ट्रीय विकलांग दिवस के रूप में मनाने की स्वीकृति प्रदान कर दी थी।
शिक्षा रोजगार के साथ सम्मान की जरूरत है विकलांगो को दया नही : पीयूष पण्डित
मेडिकल कारणों से कभी-कभी व्यक्ति के विशेष अंगों में दोष उत्पन्न हो जाता है, जिसकी वजह से उन्हें समाज में 'विकलांग' की संज्ञा दे दी जाती है और उन्हें एक विशेष वर्ग के सदस्य के तौर पर देखा जाने लगता है। आमतौर पर हमारे देश में दिव्यांगों के प्रति दो तरह की धारणाएं देखने को मिलती हैं। पहला, यह कि जरूर इसने पिछले जन्म में कोई पाप किया होगा, इसलिए उन्हें ऐसी सजा मिली है और दूसरा कि उनका जन्म ही कठिनाइयों को सहने के लिए हुआ है, इसलिए उन पर दया दिखानी चाहिए। हालांकि यह दोनों धारणाएं पूरी तरह बेबुनियाद और तर्कहीन हैं। बावजूद इसके, दिव्यांगों पर लोग जाने-अनजाने छींटाकशी करने से बाज नहीं आते। वे इतना भी नहीं समझ पाते हैं कि क्षणिक मनोरंजन की खातिर दिव्यांगों का उपहास उड़ाने से भुक्तभोगी की मनोदशा किस हाल में होगी। तरस आता है ऐसे लोगों की मानसिकता पर, जो दर्द बांटने की बजाय बढ़ाने पर तुले होते हैं। एक निःशक्त व्यक्ति की जिंदगी काफी दुख भरी होती है। घर-परिवार वाले अगर मानसिक सहयोग न दें तो व्यक्ति अंदर से टूट जाता है। वास्तव में लोगों के तिरस्कार की वजह से दिव्यांग स्व-केंद्रित जीवनशैली व्यतीत करने को विवश हो जाते हैं। दिव्यांगों का इस तरह बिखराव उनके मन में जीवन के प्रति अरुचिकर भावना को जन्म देता है।
देखा जाये तो भारत में दिव्यांगों की स्थिति संसार के अन्य देशों की तुलना में थोड़ी दयनीय ही कही जाएगी। दयनीय इसलिए कि एक तरफ यहां के लोगों द्वारा दिव्यांगों को प्रेरित कम हतोत्साहित अधिक किया जाता है। कुल जनसंख्या का मुट्ठी भर यह हिस्सा आज हर दृष्टि से उपेक्षा का शिकार है। देखा यह भी जाता है कि उन्हें सहयोग कम मजाक का पात्र अधिक बनाया जाता है। दूसरी तरफ विदेशों में दिव्यांगों के लिए बीमा तक की व्यवस्था है जिससे उन्हें हरसंभव मदद मिल जाती है जबकि भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है। हां, दिव्यांगों के हित में बने ढेरों अधिनियम संविधान की शोभा जरूर बढ़ा रहे हैं, लेकिन व्यवहार के धरातल पर देखा जाये तो आजादी के सात दशक बाद भी समाज में दिव्यांगों की स्थिति शोचनीय ही है। जरूरी यह है कि दिव्यांगजनों के शिक्षा, स्वास्थ्य और संसाधन के साथ उपलब्ध अवसरों तक पहुंचने की सुलभ व्यवस्था हो। दूसरी तरफ यह भी देखा जा रहा है कि प्रतिमाह दिव्यांगों को दी जाने वाली पेंशन में भी राज्यवार भेदभाव होता है। मसलन, दिल्ली में यह राशि प्रतिमाह 1500 रुपये है तो झारखंड सहित कुछ अन्य राज्यों में विकलांगजनों को महज 400 रुपये रस्म अदायगी के तौर पर दिये जाते हैं। समस्या यह भी है कि इस राशि की निकासी के लिए भी उन्हें काफी भागदौड़ करनी पड़ती है।
दरअसल, हमारे देश में दिव्यांगों के उत्थान के प्रति सरकारी तंत्र में अजीब-सी शिथिलता नजर आती है। हालांकि, हर स्तर से दिव्यांगों के प्रति दयाभाव जरूर प्रकट किये जाते हैं, लेकिन इससे किसी दिव्यांग का पेट तो नहीं ना भरता है! आलम यह है कि आज दिव्यांग लोगों को ताउम्र अपने परिवार पर आश्रित रहना पड़ता है। इस कारण, वह या तो परिवार के लिए बोझ बन जाता है या उनकी इच्छाएं अकारण दबा दी जाती हैं। वहीं, दूसरी तरफ दिव्यांगों के लिए क्षमतानुसार कौशल प्रशिक्षण जैसी योजनाओं के होने के बावजूद जागरूकता के अभाव में दिव्यांग आबादी का एक बड़ा हिस्सा ताउम्र बेरोजगार रह जाता है। अगर उन्हें शिक्षित कर सृजनात्मक कार्यों की ओर मोड़ा जाता है तो वे भी राष्ट्रीय संपत्ति की वृद्धि में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं। इस तरह स्वावलंबी होने से वह अपने परिवार या आश्रितों पर बोझ नहीं बनेगा और धीरे-धीरे वह उज्ज्वल भविष्य की ओर कदम भी बढ़ाता नजर आएगा। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने अगले सात वर्षों में 38 लाख विकलांगों को लक्ष्य बनाकर राष्ट्रीय कौशल नीति पेश की है। इससे पहले भी दीनदयाल विकलांग पुनर्वास योजना आंशिक रूप से प्रचलन में थी। जिसके तहत विकलांग व्यक्तियों के कौशल उन्नयन हेतु व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र परियोजनाओं को वित्तीय सहायता (परियोजना लागत के 90 प्रतिशत तक) प्रदान की जाती है। यह कौशल 15 से 35 वर्ष की आयु समूह के लिए है ताकि ऐसे व्यक्ति आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे आ सकें। यह पहल सराहनीय है कि सरकार का सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत बनाया गया विकलांग सशक्तिकरण विभाग विकलांगों की राष्ट्रीय कार्य योजना और सुगम्य भारत अभियान के माध्यम से एक बेहतर माहौल बनाने की कोशिशें की जा रही हैं।
आंकड़ों के लिहाज से भारत में करीब दो करोड़ लोग शरीर के किसी विशेष अंग से विकलांगता के शिकार हैं। दिव्यांगजनों को मानसिक सहयोग की जरूरत है। परिवार, समाज के लोगों से अपेक्षा की जाती है कि उन्हें आगे बढ़ने को प्रेरित करें। शारीरिक व्याधियों से जूझ रहे लोगों को 'डिजेबल्ड' न कहकर 'डिफरेंटली एबल्ड' कहना ज्यादा अच्छा होगा। अगर उन्हें उनकी वास्तविक शक्ति का अहसास दिलाया जाये तो उनके साधारण से कुछ खास बनने में उन्हें देर नहीं लगेगी। हमारे सामने वैज्ञानिक व खगोलविद स्टीफन हॉकिंग, भारतीय पैराओलंपियन देवेंद्र झांझरिया, धावक ऑस्कर पिस्टोरियस, मशहूर लेखिका हेलेन केलर जैसे लोगों की लंबी फेहरिस्त है, जिन्होंने विकलांगता को कमजोरी नहीं समझा, बल्कि चुनौती के रूप में लिया और आज हम उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें याद करते हैं। यदि समाज में सहयोग का वातावरण बने, लोग किसी दूसरे की शारीरिक कमजोरी का मजाक न उड़ाएं, तो आगे आने वाले दिनों में हमें सकारात्मक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।
समाज के इस वर्ग को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराया जाये तो वे कोयला को हीरा भी बना सकते हैं। समाज में उन्हें अपनत्व-भरा वातावरण मिले तो वे इतिहास रच देंगे और रचते आएं हैं। एक दिव्यांग की जिंदगी काफी दुखों भरी होती है। घर-परिवार वाले अगर मानसिक सहयोग न दें, तो व्यक्ति अंदर से टूट जाता है। वैसे तो दिव्यांगों के पक्ष में हमारे देश में दर्जन भर कानून बनाए गए हैं, यहां तक कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी दिया गया है, परंतु ये सभी चीजें गौण हैं, जब तक हम उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना बंद ना करें। वे भी तो मनुष्य हैं, प्यार और सम्मान के भूखे हैं। उन्हें भी समाज में आम लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी है। उनके अंदर भी अपने माता-पिता, समाज व देश का नाम रोशन करने का सपना है। बस स्टॉप, सीढ़ियों पर चढ़ने-उतरने, पंक्तिबद्ध होते वक्त हमें यथासंभव उनकी सहायता करनी चाहिए। आइए, एक ऐसा स्वच्छ माहौल तैयार करें, जहां उन्हें क्षणिक भी अनुभव ना हो कि उनके अंदर शारीरिक रूप से कुछ कमी भी है। इस बार के 'विश्व विकलांग दिवस' पर मेरी यह छोटी-सी अपील है कि दिव्यांगों का मजाक न उड़ाएं, उन्हें सहयोग दें।
...अंत में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस सुझाव को दुहराना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने निःशक्तों (विकलांगों) को 'दिव्यांग' कहने का उचित विचार दिया था। यह महज एक औपचारिकता ना रहे, इसलिए इस सुझाव को व्यवहार में लाया जाना चाहिए।
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